Kavi Kumar Ashok is a young Indian poet and writer. This Blog is dedicated to him and his Literary work. He is Honored with "Vishwas Trophy Award in 2005.
कितनी बार समझाया
कितनी बार समझाया
कि. . .
वहाँ मत जाया करो
वहाँ किसी की बेवफाई है
और मेरी तनहाई है
उन दीवारों से मत पूछना
वो तुम्हें दगा देंगे
नाम पूछोगे मेरा
वो कुछ और बता देंगे
क्योंकि . . .
दीवारों पर जमी काई
के नीचे सच्चाई
का दम घुट रहा है
दरारों में होड़ लगी है
और रंग छुट रहा है
कुछ लोगों का कहना है कि
ये भूतिया घर है
नोट बंदी के भूत का
लोगों में डर है
दिवार पर टँगे बापू
बेबस और मूक है
कोने में पड़ी आलमारी
में इमानदारी दो टूक है
धर्म अपने कर्म पर रो रहा है
अधर्म अनायास खुश हो रहा है
सत्य मेव जयते अब धुंधला सा है
आज़ादी का स्वाद कुछ बदला सा है
रोटी के डिब्बे में
बंद लोकतंत्र है
घर की देहलीज पर
गधों का आतंक है
उसी देहलीज पर अब
किसान रोते है
उनकी हर आह पर
जुमलेबाज खुश होते हैं
घर के किवाड़ कुण्डियाँ
सब ऐठे हैं
कुर्सियों पर अब कुकुरमुत्ते
बैठे हैं
मर्यादा की पूस से बना छज्जा
सिसक रहा है
न्याय का फर्स भी
अब खिसक रहा है
ठेका मिला जिनको नीड़ के निर्माण का
उन्होंने ही दगा दिया
ईमानदारी की ईंटों पर
भ्रष्टाचार का प्लास्टर लगा दिया
झूठे वादों की झूठी कहानी
मैं वहीँ छोड़ आया हूँ
बस एक सच्ची गरीबी थी
जिसे साथ लाया हूँ
अब तुम वहाँ मत जाना
अन्यथा असहिष्णुता का भूत जग जायेंगे
तुम सोचते रह जाओगे
और देशद्रोह के आरोप लग जायेंगे..
- कवि कुमार अशोक
पुच्छल तारा
वह टहनी अपने ही तरुवर से छूटा सा !
वह ओस की बूंदों जैसा पत्तों पर बैठा,
वह जैसे कोई बेल हो पेड़ों में ऐंठा !
वह टूटे नीड़ के तिनके तिनके सा बिखरा,
वह जैसे कोई गीत हो भूला और बिसरा !
वह घुप्प अंधेरों में एक नन्हा जुगनू सा
वह जैसे कोने में रखा एक मंजूषा
वह सहमा-सहमा सा थोडा सा डरा-डरा
वह पतझड़ के पीले पत्तों सा झरा-झरा
वह अपना होकर भी अपनों से छँटा-छँटा
वह अपना हो कर भी अपनों में बँटा-बँटा
- कवि कुमार अशोक
पीली तितली
एक दिन अपनी बगिया में,
भरती उड़ान मस्तानी चाल
छिपती फूलों की डलीया में
पिताम्बरी वर्ण के युग्म पर
मोह लेती मेरा मन,
कंचन सा उसका कोमल तन
लगता यूँ मानों स्वर्ण-सुमन
जब शाम हुयी तो प्रभाकर
अपनी किरणों को बटोरता,
उदधि के उमड़े उर के
आड़ में जाकर छिपता
छिप गयी वो पीली तितली भी
हो करके आँखों से ओझल,
फिर भी मन में ये चाहत है
पीली तितली देखूँ पल-पल
- कवि कुमार अशोक
सब कुछ हार गया
मुझको इंसान बनाया किसने ?
कश्मीर हमारा है हम नहीं देंगे !
कवि सम्मलेन - शाम-ए-अवध , इंदौर
जीवन की परिभाषा
तुम हो जीवन की परिभाषा।
तुम प्राण हो तुम श्वास हो,
तुम आस्था विश्वाश हो।
तुम हो मेरी आराधना,
मेरे मन की कल्पना
मेरे जीवन की प्रेरणा।
- कवि कुमार अशोक
दिल की कलम से
किताबों में अक्सर तुम मिलती हो मुझसे
कभी घर भी मेरे तुम आना प्रिये
वो सावन का झूला वो बारिश की बूँदें
मेरा दिल भी तुम साथ लाना प्रिये
शयन कक्ष में तुम न जाना प्रिये
वहाँ तुमको टूटा दर्पण मिलेगा
संभलकर के रखना कदम धीरे-धीरे
अन्यथा रक्त मेरे ह्रदय से बहेगा
यदि आना हो मन के इस आंगन में तुमको
तो मेरी कल्पना बनकर आना प्रिये
कागज़ के पन्नों पर दिल की कलम से
मेरी प्रेरणा बनकर छाना प्रिये
जो छिपाकर रखे थे किताबों में मैंने
उन गुलाबों को फिर से महकाना प्रिये
तेरा रूठ जाना तुम्हें फिर मनाना
जरा फिर वो किस्सा सुनना प्रिये
- कवि कुमार अशोक