मेरी कलम

मेरी कलम कभी-कभी

हठ करती है सच लिखने का

पर मैं अक्सर उसे

फुसला लेता हूँ

नीले की जगह चुपके से

काली दवात भर देता हूँ

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क्या पता मैं उससे या खुद से ही

छल करता हूँ

वह सच को सचही लिखती है

और मैं..

सच पढ़ने से भी डरता हूँ

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फिर सहसा एक विचार आता है कि

उसकी जिह्वा ही बदल दूँ

या कि लोभ दूँ चमकीले ढक्कन का

और उसकी

सच लिखने की आदतको ही ढक दूँ

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लेकिन क्या चमकीले ढक्कन से

कलम की अच्छाई बदलेगी ?

अन्यथा कलम बदलने से

क्या सच्चाई बदलेगी ?

नहर



खेतों के आलिंगन

मेड़ों का चुम्बन,

ऊसर के लांक्षन 

सहती है नहर,

खेतों के बीच से 

बहती है नहर .. 

खेतों को देती है

अपना वो तन मन,

फसलों पर न्योछवार

करती है यौवन,

बंजर धारा को 

दे देती है जीवन,

क्यूँ एक अबला सी

रहती है नहर,

खेतों के बीच से 

बहती है नहर..

सूखे और बाढ़ का 

लेकर कलंक,

बहती चुपचाप वो

मधुर जलतरंग,

सरिता से पीड़ा

कहती है नहर,

खेतों के बीच से 

बहती है नहर..