कितनी बार समझाया



कितनी बार समझाया

कि. . .

वहाँ मत जाया करो

वहाँ किसी की बेवफाई है

और मेरी तनहाई है

उन दीवारों से मत पूछना

वो तुम्हें दगा देंगे

नाम पूछोगे मेरा

वो कुछ और बता देंगे

क्योंकि . . .

दीवारों पर जमी काई

के नीचे सच्चाई

का दम घुट रहा है

दरारों में होड़ लगी है

और रंग छुट रहा है

कुछ लोगों का कहना है कि

ये भूतिया घर है

नोट बंदी के भूत का

लोगों में डर है

दिवार पर टँगे बापू

बेबस और मूक है

कोने में पड़ी आलमारी

में इमानदारी दो टूक है

धर्म अपने कर्म पर रो रहा है

अधर्म अनायास खुश हो रहा है

सत्य मेव जयते अब धुंधला सा है

आज़ादी का स्वाद कुछ बदला सा है

रोटी के डिब्बे में

बंद लोकतंत्र है

घर की देहलीज पर

गधों का आतंक है

उसी देहलीज पर अब

किसान रोते है

उनकी हर आह पर

जुमलेबाज खुश होते हैं

घर के किवाड़ कुण्डियाँ

सब ऐठे हैं

कुर्सियों पर अब कुकुरमुत्ते

बैठे हैं

मर्यादा की पूस से बना छज्जा

सिसक रहा है

न्याय का फर्स भी

अब खिसक रहा है

ठेका मिला जिनको नीड़ के निर्माण का

उन्होंने ही दगा दिया

ईमानदारी की ईंटों पर

भ्रष्टाचार का प्लास्टर लगा दिया

झूठे वादों की झूठी कहानी

मैं वहीँ छोड़ आया हूँ

बस एक सच्ची गरीबी थी

जिसे साथ लाया हूँ

अब तुम वहाँ मत जाना

अन्यथा असहिष्णुता का भूत जग जायेंगे

तुम सोचते रह जाओगे

और देशद्रोह के आरोप लग जायेंगे..


- कवि कुमार अशोक 

 

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