सब कुछ हार गया



ये बैरी जग बहुरूपियों का
जीते हैं मुखौटों के भीतर
क्रोघ,घृणा और दंभ ग्रसित
दुर्बल के रक्त को पी-पी कर
ये पाषण ह्रदय वाले दानव
उत्पात करें अधिकारों पर
जब बात करे कर्तव्यों की
मुक्का कस दें लाचारों पर 
इन छलियों के द्यूतक्रीड़ा में
मुझ निर्छल का संसार गया
आज मैं सब कुछ हार गया  

- कवि कुमार अशोक 

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