मैं क्या कहूँ और क्या लिखूँ ?




वतन का ज़िक्र आता है तो

मैं सोचता हूँ कि 
मैं क्या करूँ ?
स्तब्ध रहूँ..या कुछ बीती लिखूँ
क्योंकि दोनों ही पड़ाव
असमंजस के हैं
यदि मैं ठूँठ रहा तो
डरता हूँ कि कहीं फिर से
जलिया वाला बाग़ में
खून न बह जाए
और
यदि कुछ लिखूँ
तो कहीं किसी गरीब की अर्ज़ी
बाकी न रह जाए
सत्य-अहिंसा का आग्रह करूँ
तो डर है कि मेरे शब्द
‘गोडसे की गोली’ से न ढह जाए
और यदि
झूठ की काली दवात से लिखूँ
तो कहीं लिखावट
बापू के आंसूओं में न बह जाए
आँख मूँद लूँ
तो डर है कि कहीं
दिल्ली की बसों में
किसी बेटी की लाज न खो जाए
और यदि.. ये ‘त्रिनेत्र’ खोल दूँ
तो डर है कि..कहीं ये
सृष्टि भस्म न हो जाए !
दोराहे पर मैं खड़ा
दुविधा में मैं पड़ा..
कि आखिर सच क्या है ?
गोडसे की बंदूक से निकला
“ हे राम... ! ”
या फिर सरेआम
कचहरी में ‘गीता’ की कुड़की
या फिर बदायूँ में
आम के पेड़ से लटकी वो लड़की
जिसे ,सल्तनत-ए-हिन्दोस्तां ने देखा था ...
ऐ मेरे एहले वतन
मैं क्या कहूँ और क्या लिखूँ 


- कवि कुमार अशोक