नटखट उम्र-औ-जान



इनसे तो अपना रिश्ता
पुराना है
हमने इनको जाना है
पहचाना है
ये बेखबर ही सही
पर हमने इनको
दिल से माना है
न जाने कितने अरसों से
बक बक कर रहें हैं
न रुक रहे हैं
न थक रहें हैं
किसी का शिकवा
तो किसी का
हाल-ए-दिल
फार्म रहें हैं
छोटे बड़े सपनों को समेटे
बस चलते जा रहें हैं
इनकी चपर चपर कानों में
बजते हैं
इनके लतीफे सर पर
बड़े जोर से लगते हैं
चोट लगती है दिल पर
फिर भी इनसे
दिल लगाता हूँ
सिर्फ इनकी एक मुस्कराहट पर
इनकी सारी
गुस्ताखियाँ भूल जाता हूँ
जिंदगी का हर नगमा
हर नज्म
अपने आँचल में समेटे
जब किसी कोने से पुकारते हैं
तो ...
जिंदगी अंधेरों में भी साफ़
नज़र आती है
ये बेखौफ़ चलते हैं
हमारी धड़कनें ठहर जातीं हैं
प्यार इस कदर है इनसे  
कि ..
ये दूर हों हमसे
तो..
जिंदगी कम हो जाती है
और करीब आयें तो
आँखें नम हो जातीं हैं
ये नटखट उम्र-औ-जान
और जिंदगी बेहिसाब बाकी है ..


- कवि कुमार अशोक 





नारी की लाज



चाँद सा चमकता चेहरा

आज क्यों है मौन सा ?
माँग से है जो मिटा
रंग था वो कौन सा ?
वो प्रीत था या प्राण था
वो वज्र था या बाण था ?
उसका भी रंग लाल था
वो अबीर या गुलाल था ?
आज तू मुझे बता
ये चीर क्यों सफ़ेद है ?
क्या छुपा रही है मुझसे
कौन सा वो भेद है ?
मेंहदी का रंग क्यों छुटा
ये नौलखा है क्यों टुटा ,
क्यों पैंजनी बेजान है
क्यों घर बना शमशान है ?
थी खनकती चूड़ीयाँ  ‌‍‌‍
वो आज क्यों खामोश है ,
सँवरती जिसमे देख कर
वो आईना बेहोश है I
वीरों की पिचकारीयाँ
चला रही थी गोलियाँ ,
छींटा पड़ा जो लाल था
वो अबीर या गुलाल था ?
स्वप्न को सँजोने वाली
आँख तेरी क्यों है नम ,
आग बनी सिसकीयाँ
अश्रु बन गये हैं बम I
वो शहीद हो गया
वक्ष से था जो बहा ,
उसका भी रंग लाल था
वो अबीर या गुलाल था ?
खो दिया है तुने जिसको
देश का वो गर्व है ,
ये होली है शहीद की
शहीद का ये पर्व है I
तिरंगा ऊँचा है खड़ा
धरा पर लतफत पड़ा ,
देश का वो लाल था
क्या अबीर क्या गुलाल था ?


- कवि कुमार अशोक 



शहीद की होली



चाँद
सा चमकता चेहरा
आज क्यों है मौन सा ?
माँग से है जो मिटा
रंग था वो कौन सा ?
वो प्रीत था या प्राण था
वो वज्र था या बाण था ?
उसका भी रंग लाल था
वो अबीर या गुलाल था ?
आज तू मुझे बता
ये चीर क्यों सफ़ेद है ?
क्या छुपा रही है मुझसे
कौन सा वो भेद है ?
मेंहदी का रंग क्यों छुटा
ये नौलखा है क्यों टुटा ,
क्यों पैंजनी बेजान है
क्यों घर बना शमशान है ?
थी खनकती चूड़ीयाँ  ‌‍‌‍
वो आज क्यों खामोश है ,
सँवरती जिसमे देख कर
वो आईना बेहोश है I
वीरों की पिचकारीयाँ
चला रही थी गोलियाँ ,
छींटा पड़ा जो लाल था
वो अबीर या गुलाल था ?
स्वप्न को सँजोने वाली
आँख तेरी क्यों है नम ,
आग बनी सिसकीयाँ
अश्रु बन गये हैं बम I
वो शहीद हो गया
वक्ष से था जो बहा ,
उसका भी रंग लाल था
वो अबीर या गुलाल था ?
खो दिया है तुने जिसको
देश का वो गर्व है ,
ये होली है शहीद की
शहीद का ये पर्व है I
तिरंगा ऊँचा है खड़ा
धरा पर लतफत पड़ा ,
देश का वो लाल था
क्या अबीर क्या गुलाल था ?


- कवि कुमार अशोक 
 
 
 
 
 
 

 

बेईमानी का डिप्लोमा



आज के जमाने में

ईमानदारी का क्या रूप है,

उसका क्या स्वरुप है

ये जानने के लिए सोचा,

तो एक आम आदमी से पूछा

उसने कहा

 

ये ईमानदारी है एक लाचारी

आप पर हँसेगी दुनिया सारी

अगर आप ईमानदार हैं‍‌

एक तो नौकरी नहीं मिलती

उसपर भी आप ईमानदार

तो सब से बड़ी गलती  

 

आप जहाँ भी जायेंगे

बस गालियाँ ही खायेंगे

मार कर भगा दिए जायेंगे

अगर आप ईमानदार हैं

 

आप चीखेंगे चिल्लायेंगे

आप की कोई नहीं सुनेगा

ऊपर से चार जूते धुनेगा

अगर आप ईमानदार हैं

 

आप को कोई नौकरी नहीं देगा

कितना भी सोर्स लगावो

नीचे से पैसा दबावो ,

बड़ी से बड़ी डिग्री लावो

चाहे भूखों मर जावो

नौकरी तब पाओगे

जब ...

बेईमानी का डिप्लोमा दिखाओगे

 

वरना ढूँढते रह जाओगे

खाली हाथ घर जाओगे

घरवालों से गालियाँ खावोगे

 

मरने जाओगे

मर भी नहीं पावोगे

और गलती से मर गये...

तो...

ऊपर क्या काला मुँह लेकर जाओगे ?

 

वहाँ के सुखों को भी नहीं भोग पावोगे

सुंदर अप्सराओं का डी जे

नहीं देख पावोगे

किसी कोने में चुप चाप

खड़े रह जावोगे

आप को प्रवेश नहीं मिलेगा !

क्योंकि उसके लिए भी ..

बेईमानी का टिकट लगेगा ....

 

- कवि कुमार अशोक

 

 

 

 

 

मैंने अक्सर देखा है



तकदीर
के रंगमंच पर
किसी की  प्रेरणा को
कहानी बनकर
पन्नों पर उतरते हुए ,
शब्दों कि तलाश में
हर मोंड से गुजरते हुए !
किसी के नसीब से
जिंदगी को करीब से
मैंने अक्सर देखा है ,
ये जाँचा है ये परखा है !
वक्त के साथ साथ
लोगों को बदलते हुए ,
विश्वास को टूट कर
आँखों से ढलते हुए !
जाने पहचाने चेहरों को
अनजान बनकर चलते हुए
मैंने अक्सर देखा है ,
ये जाँचा है ये परखा है !
आँखों को सपने बुनते हुए
रातों को खुले आसमान में
किस्मत के सितारे को ढूँढते हुए ,
चाँद कि दुधिया रोशनीं में
किसी के चेहरे को भाँपते हुए !
नयी सुबह के इंतज़ार में
किसी को सारी रात जागते हुए
मैंने अक्सर देखा है ,
ये जाँचा है ये परखा है !
आस्था के आँचल में
पत्थर कि पूजा करते हुए ,
मूक निर्जीव शिला समक्ष
हाँथ जोड़कर शीश धरते हुए !
अमीर-गरीब के फर्क को
दुःख को दर्द को
जाना है...
रोटी की कीमत,और
रिश्तों कि एहमियत को
पहचाना है...
हर मोड़ पर हमको रुलाते हुए
जिंदगी को हमसे रूठ कर जाते हुए
मैंने अक्सर देखा है ,
ये जाँचा है ये परखा है !

 - कवि कुमार अशोक